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बोर होने में बुराई क्या है
बोर होने में बुराई क्या है
चैतन्य नागर    18 Jun 2017       Email   

पापा मैं बोर हो रहा हूं, मम्मी मैं बोर हो रही हूं। गर्मी की छुट्टियां बीतती जा रही हैं। जो लोग संपन्न और शौकीन हैं, वे देश-विदेश की यात्राओं पर निकल पड़े होंगे और जो किन्हीं कारणों से घर पर रह गए, उन्हें ये शब्द लगातार सुनने को मिले होंगे। जो बाहर गए होंगे, उन्हें भी यह बार-बार सुनने को मिला होगा। यह बोरियत कमबख्त कभी पीछा नहीं छोड़ती, बड़ों का भी और बच्चों का भी। एक साए की तरह लगातार पीछे चलती है। पर कभी पूछा जाए कि क्या बुराई है बोर होने में, ऊबने में। ऊबा हुआ इंसान उत्तेजना ढूंढता है और जब एक उत्तेजना उसे ऊबा देती है तो वह दूसरी उत्तेजना की खोज में चल निकलता है। यह अंतहीन यात्रा चलती रहती है। बोरियत से मुक्ति की यात्रा भी बहुत ऊबाऊ है! मेरे पश्चिमी मित्र कहते हैं कि भारत में बच्चे गरीब होते हुए भी मुस्कुराते दिखते हैं, जबकि हमारे यहां तो बच्चे हमेशा दुखी ही रहते हैं। चाहे उन्हें कितने भी खिलौने दे दो। मन एक चूने वाली बाल्टी-सा है, आप जितना पानी डाल लो, वह भरने को नहीं। अक्सर मोबाइल, टीवी और ई-पैड बोरियत के लिए जिम्मेदार होते हैं। जिन चीजों को मनोरंजन के लिए बनाया गया, वे ही भयंकर बोरियत का कारण बन गईं। है न दिलचस्प बात! बोरियत को जानबूझ कर भी पैदा किया जाता है, क्योंकि मनोरंजन का उद्योग अरबों डॉलर्स का है। यदि इंसान बोर ही न हो तो कैसे यह उद्योग चलेगा। बोरियत का मतलब खालीपन, जिसे आप किसी भी तरह भरना चाहें। जरा आप सोचिए, जो खालीपन बहुत ही सृजनात्मक भी हो सकता था, उसे बाजार ने कैसे चीजों से भर दिया! और साथ ही कभी उसे भरने भी नहीं दिया। लगातार उत्तेजना उपलब्ध करवाई और लगातार ऊब से भरे रखा। आइंस्टाइन सड़क पर बैठा घंटों कीड़ों को देखता था! क्यों। सीखने वाला मन, सृजनात्मक मन कभी ऊब नहीं सकता। उत्तेजना की तलाश में लगा मन हमेशा भूखा और ऊबा हुआ होता है। जब हम कोई प्याला, पात्र या मर्तबान लेने जाते हैं तो उसे खाली लेकर ही घर आते हैं। यदि वह भरा हुआ है तो फिर किस काम का। पर जीवन में एक भी पल खाली हुआ तो हमें कितना बेचैन कर देता है, कितनी व्यग्रता से भर देता है! इस खालीपन और उससे भागने की इच्छा का नाम ही है बोरियत। थोड़ा इस और कुरेदें तो इसके भीतर भय का चेहरा भी झांकता हुआ दिखेगा।    
गौरतलब है कि आइंस्टाइन ने बहुत पहले एक चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था कि एक ऐसी पीढ़ी जल्दी ही आने वाली है, जो टेक्नोलॉजी की वजह से मूढ़ हो जाएगी! हमारी और हमारे ठीक बाद वाली पीढ़ी का जीवन हर वक्त किसी न किसी स्क्रीन के साथ बंधा रहता है, किसी फ्रेम के साथ और वह फ्रेम छोटा या बड़ा हो सकता है। वो मोबाइल की स्क्रीन का फ्रेम हो सकता है या फिर बड़े स्क्रीन का फ्रेम। इसने हमें बहुत ही सीमित कर दिया है। क्या हम डिस्कवरी चैनल पर खूबसूरत समुद्र तट देखने और समुद्र के किनारे वास्तव में जाने, टहलने और लहरों के थपेड़ों को अपने घुटनों तक महसूस करने का फर्क समझ सकते हैं! समुद्र के किनारे की नमकीन, भीगी हुई हवा की गंध को सूंघने और उसे टीवी एचडी स्क्रीन पर देखने का फर्क समझ सकते हैं न। पर जिस बच्चे ने वास्तव में समुद्र नहीं देखा, वह नहीं समझ सकता। वह टीवी पर उसे देख कर खुश होगा, पर वास्तव में उसे देखकर या तो डरेगा और या जल्दी ही ऊब कर वापस होटल या घर जाने की जिद करेगा। स्क्रीन की वजह से उसने वास्तविक जीवन को देखने और जीने की हिम्मत खो दी है। समझा जा सकता है कि यह कितना भयावह है यह, क्योंकि उस बच्चे को आखिरकार वास्तविक जीवन में ही रहना है, जीते-जागते लोगों के साथ ही संबंध बनाने हैं। आप को जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यह दिक्कत बच्चों की ही नहीं, हम बड़े लोगों की भी है! हममें से कई सिर्फ  मजबूरी में ही आभासी दुनिया से बाहर आकर असली लोगों के साथ मिलते-जुलते हैं। स्क्रीन के आदी बच्चों और बड़ों के ऊबने का एक और बड़ा कारण है। स्क्रीन पर घटनाएं तेजी के साथ घटती हैं। हर चीज की गति कुछ ऐसी होती है कि वह वास्तविक जीवन की लय के साथ बिलकुल भी मेल नहीं खातीं। जीवन की गति मद्धिम है। आहिस्ता-आहिस्ता चलता है जीवन। स्क्रीन पर लगातार तेज गति के दृश्य देखते देखते मन को उसी गति की आदत पड़ जाती है और वास्तविक जीवन में जैसे ही वह उतरता है, उसे ऊब महसूस होने लगती है। यह सब कुछ एक तरह की बेहोशी में, अचेतन स्थिति में होता है। स्क्रीन को देखता हुआ मन एक निष्कि्रय सजगता में रहता है और तेजी से भागती स्क्रीन उसके मस्तिष्क में कहीं प्रवेश कर जाती है और वह उसे ही वास्तविक मान लेता है। यह कोई जटिल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं, हम सभी बड़ी आसानी से इसे खुद के भी और बाकी लोगों के भीतर भी होता हुआ देख सकते हैं। स्क्रीन पर घटने वाली उत्तेजक चीजें एक रसायन पैदा करती है ब्रेन में। डोपामाइन नाम के इस रसायन का संबंध होता है सुखदायी उत्तेजना के साथ। एक बार मस्तिष्क इसका आदी हो जाए तो फिर बड़ा ही मुश्किल है इससे छुटकारा पाना। बाकी सब कुछ इस रसायन से मिलने वाली खुशी के सामने फीका पड़ जाता है। आप हिमालय के विराट सौंदर्य के सामने खड़े होकर भी अपनी मोबाइल का स्क्रीन देखते रहेंगे! 
स्क्रीन के आदी होने के बारे में इतना कुछ लिखने का यही कारण है कि बोरियत का उसके साथ गहरा संबंध है। इसलिए जब बच्चों को मोबाइल या टीवी से दूर किया जाता है तो वे बड़े चिड़चिड़ा जाते हैं और उन्हें बिलकुल समझ में नहीं आता कि वे अब करें क्या। गौरतलब है कि बच्चों के लिए खेलना-कूदना उतना ही जरूरी है, जितना कि सांस लेना। आपको यह जान कर ताज्जुब होगा कि हाल के एक शोध में पता चला है कि यदि कोई रोजाना 10 घंटे बैठे-बैठे बिताता है तो पूरी संभावना है कि अगले 10 सालों में उसकी मृत्यु हो जाएगी! स्क्रीन के साथ जुड़े होने का मतलब ही है एक जगह बैठ जाना। और इस एक जगह बैठ जाने के साथ कई लाइफस्टाइल बीमारियां जुड़ी हैं, ये सभी जानते हैं। मधुमेह, रक्तचाप, हड्डियों की बीमारियां सभी इसी स्थिर बैठे रहने के साथ जुड़ी हैं।
क्या हम कभी खुद को और बच्चों को बोर होने दें। इसपर कोई प्रयोग करें। जब बच्चे कहते हैं कि वे ऊब रहे हैं तो सबसे आसान तरीका है, उन्हें कोई इलेक्ट्रॉनिक गैजेट पकड़ा देना या टीवी चालू कर देना। बच्चा भी खुश और आप एक बड़ी समस्या से खुद को मुक्त मान लेते हैं। पर यह सिर्फ  एक अस्थाई समाधान है, बहुत ही सतही भी। क्या ऐसे समय में बच्चे के साथ बैठकर थोड़ी बात की जा सकती है, उसके साथ कोई ऐसा खेल खेला जा सकता है, जिसमें शारीरिक श्रम भी लगे। हम खुद यदि मोबाइल के आदी हो गए हों तो यह मुमकिन है कि उससे बचने के लिए हम थोड़ा बाहर या घर के भीतर ही टहल लें! यह सवाल तो पूछें कि हमें हर समय कुछ न कुछ करते रहने की जरूरत पड़ती क्यों है। क्या ऐसा है कि हम एक पल के लिए भी ऊबना नहीं चाहते। इतना भयावह क्या है इस खालीपन में जो हमें इतना डराता है और लगातार इधर-उधर भागने, कुछ न कुछ करते रहने पर मजबूर करता है।    
बर्ट्रेंड रसल अपनी किताब द कॉनक्वेस्ट ऑफ  हैप्पीनेस में लिखते हैं- किसी बच्चे का विकास तभी होता है, जब उसे एक छोटे पौधे की तरह उसी मिट्टी में छोड़ दिया जाए, बगैर परेशान किए। बहुत अधिक यात्राएं, कई तरह के प्रभाव उनके लिए अच्छे नहीं। जब वे बड़े होते हैं तो वे जीवन की उपयोगी ऊब को बर्दाश्त कर पाने में असफल हो जाते हैं।
बड़ा फायदेमंद है, कभी कुछ देर के लिए ही सही, खुशी-खुशी, बगैर किसी दबाव के खाली हो जाना। रिक्तता को आमंत्रित करना। जीवन कई तरह के कचरे से भर गया है और बगैर खाली हुए यह कचरा दिखाई ही नहीं देगा। हमेशा उचाट रहेगा मन, किसी न किसी वस्तु की, किसी मित्र की, किसी अतिथि की, किसी के प्रेम की खोज में व्यस्त या उदास रहेगा। एक बार हम सीखें कि ऊबना कोई बीमारी नहीं, कोई पाप नहीं। कभी खाली पात्र-से हो लें और जीवन को उतरने दें अपने भीतर आहिस्ता-आहिस्ता। पूरी तरह मशीन बन जाने से पहले। पास्कल तो यहां तक कहता था कि इंसान यदि कुछ पल भी खुद को किसी कमरे में बंद करके अकेला रह सके तो इस दुनिया की ज्यादातर समस्याएं निपट जाएंगी।






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