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बड़ी चुनौती है जनसंख्या विस्फोट
बड़ी चुनौती है जनसंख्या विस्फोट
सुशील कुमार सिंह    29 Jun 2017       Email   

तीन दशक पहले भारत में जनसंख्या नियंत्रण को पुख्ता करने के लिए जब हम दो-हमारे दो के नारे गूंज रहे थे, तब शायद ही किसी ने इसके प्रति गहरी संवेदनशीलता और भविष्य में इसके प्रभावों को लेकर गहरी सोच रखी हो। ध्यान आता है कि प्राइमरी स्कूल की दीवारों पर इस प्रकार के श्लोगन भी मोटे-मोटे अक्षरों में लिखे मिलते थे। आज भी कुछ सार्वजनिक स्थानों मसलन रेलवे स्टेशन व बस अड्डों आदि की दीवारों पर जीवन सुरक्षा, पर्यावरण के प्रति चेतना तथा जनसंख्या की वृद्धि के प्रति आगाह व इसके साइड-इफेक्ट को ध्यान में रख कर लिखे गए श्लोगन नजरों के सामने से कभी-कभार गुजर ही जाते हैं, पर नजरअंदाज करने की आदत के चलते इस पर गंभीरता का भाव शायद ही अब भी पनपता हो। 
संयुक्त राष्ट्र की हालिया रिपोर्ट ने यह अलर्ट जारी कर दिया है कि मात्र सात वर्ष बाद यानी 2024 तक भारत की आबादी चीन से अधिक हो जाएगी, साथ ही 2030 तक भारत सवा अरब से डेढ़ अरब वाला देश हो जाएगा। हालांकि 2021 और 2031 की जनगणना से चित्र शीशे की तरह साफ  हो जाएगा। संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक व सामाजिक मामले के विभाग ने ‘द वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रॉस्पेक्ट्सः द 2017 रिवीजन’ रिपोर्ट जारी करते हुए आगाह किया है कि मौजूदा चीन की जनसंख्या जो एक अरब 41 करोड़ है, उसकी तुलना में भारत एक अरब 34 करोड़ तक पहुंच रहा है और वो यह फासला जल्द ही तय कर लेगा। जिस परिप्रेक्ष्य में जनसंख्या को लेकर बरसों पहले से चिंता होती रही है और उनमें संवेदनशीलता का जिस कदर अभाव था, उसी का नतीजा यह रिपोर्ट है। देश में प्रति दस वर्ष में एक बार जनसंख्या की गिनती होती है और हर बार आंकड़े देखकर एक नए सिरे से नियंत्रण की कवायद शुरू होती है, पर नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे हैं। नियंत्रण की दर बहुत कमजोर है, यह बात किसी से छुपी नहीं है, पर मजबूत कैसे होगी। सरकारों के प्रयासों को देखते हुए लगता है कि निदान इनके पास भी नहीं है। 
हमारी सामूहिक भौतिक समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या जनसंख्या वृद्धि ही है, यह बात जितनी शीघ्र समझ में आ जाएगी, निदान उतना ही निकट होगा। भारत की भूमि और मौजूदा अर्थव्यवस्था जितने लोगों का भार वहन कर सकती है, मामला उससे ऊपर तो जा चुका है। चारों तरफ  बिगड़ा संतुलन इसके साइड इफेक्ट ही हैं। इसके पहले अनुमान यह था कि भारत जनसंख्या के मामले में चीन को 2028 में पीछे छोड़ देगा, पर यह अनुमान भी गलत सिद्ध हो गया। बावजूद इसके जिस गति से भारत में जनसंख्या को लेकर गिरावट दर्ज की गई है, उसके अनुपात में अनुमान है कि 2050 के बाद ही इसमें कमी परिलक्षित होगी, पर तब तक देश की आबादी कहां जाकर रुकेगी, इसका अनुमान तो किसी के पास नहीं है। आंकड़े इसका भी समर्थन करते हैं कि इतने ही वर्षों में दुनिया के दस देशों की आबादी पूरी दुनिया की तुलना में आधी होगी। वैसे देखा जाए तो इन दस देशों में शामिल नाइजीरिया की आबादी सबसे तेजी से बढ़ रही है और 2050 तक यह भारत, चीन के बाद तीसरा सर्वाधिक आबादी वाला देश होगा। अब यहां यह समझना होगा कि इतने बड़े हिस्से की जरूरत पूरी कैसे हो। भारत में 65 फीसदी युवा रहता है। हालात यह है कि सरकार दो फीसदी से अधिक नौकरी दे नहीं सकती। इसमें भी कटौती जारी है। निजी संस्थानों में काबिलियत और कूबत परवान चढ़ रहे हैं। यहां भी संभावना उन्हीं की है, जो हुनरमंद हैं। अब सवाल है कि करोड़ों की तादाद में प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहे बेरोजगार युवक कहां खपेंगे। यह केवल सरकार को सोचना है या अन्य को भी, बता पाना मुश्किल है। अमेरिका जैसे देश भी संकुचित सोच की ओर जा रहे हैं। खाड़ी देश भी रोजगार के मामले मे पहले जैसे खुले विचारों के नहीं रह गए। यूरोपीय देशों में भी हाल कम खराब नहीं हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में दिशा तय करना यदि मुश्किल होगा तो यह जनसंख्या का साइड इफेक्ट ही कहा जाएगा। 
जनसंख्या पर काबू नहीं रहा तो समस्या सबके लिए बढ़ेगी। कम उत्पादन और कर्ज के दबाव में किसान मौत को गले लगा रहे हैं, चाहे उपज की कीमत की समस्या हो या घट रहे जोत की हो या उसमें गिरते उत्पादन की दर हो। यहां भी जनसंख्या विस्फोट ही अक्ष पर घूमता दिखाई देता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माल्थस ने लिखा है कि जिस गति से जनसंख्या का प्रवाह बढ़ता है, उस गति से उत्पादन बढ़ सकना संभव नहीं हो सकता। इसलिए समझदार लोगों का कर्तव्य है कि अपने समाज में अनावश्यक जनसंख्या न बढ़ने दें। यह बात सभी जानते हैं कि जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है, उस गति से संसाधन उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। राष्ट्रीय विकास की दृष्टि से जीवन स्तर उठाने का पूरा प्रयत्न हुआ है। अशिक्षा, दरिद्रता और बीमारी से जंग अभी भी लड़ी जा रही है, बावजूद इसके भारत में हर चौथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और इतने ही अशिक्षित हैं। व्यक्तिगत जीवन में भी जनसंख्या विस्फोट का घातक प्रभाव पड़ रहा है। बच्चों का उचित पालन-पोषण न हो पाना, साथ ही शिक्षा, स्वास्थ समेत बुनियादी मांगों को पूरा न कर पाने की वर्ग विशेष में मुश्किलें साफ -साफ  दिखने लगी हैं। ऐसे कई समस्याएं जनसंख्या के साइड इफेक्ट के तौर पर पंक्तिबद्ध की जा सकती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि भारत में अनियंत्रित जनसंख्या का प्रवाह हो रहा है, जैसा कि आंकड़े इशारा कर रहे हैं। यह इस बात की भी आहट है कि इसमें कोई विस्फोटक क्रांति छुपी हुई है।
पहला सवाल यह उठता है कि क्या इस पर नियंत्रण को लेकर समय निकल गया है या अभी बचा है। 1951 में 36 करोड़ का देश जब डेढ़ अरब के कगार पर हो तो समय निकला हुआ ही कहा जाएगा। दूसरा सवाल है कि सरकारों ने क्या किया, साथ ही प्रश्न यह भी है कि नागरिकों ने क्या किया? सरकार पहली जनसंख्या नीति 1948 में लाई इसके बाद 1974 में तत्पश्चात 1976 में कुछ बदलाव किए पर तीव्रता पर कोई लगाम नहीं लगी। वर्ष 2000 में एक नई जनसंख्या नीति आई, जिसमें जनसंख्या दर में गिरावट के साथ छोटे परिवार की अवधारणा का विकास करना शामिल था। इसी में यह भी था कि 2045 तक स्थिर जनसंख्या का लक्ष्य प्राप्त किया जायेगा। 2001 की जनगणना के समय देश की जनसंख्या 84 करोड़ से 102 करोड़ हुई थी, जबकि 2011 में यह आंकड़ा 121 करोड़ पर जाकर रुका। तुलनात्मक गिरावट दर्ज हुई पर भयावह स्थिति को रोकना संभव नहीं हुआ। आखिर जनसंख्या नीति भारत में इतनी असफल क्यों और चीन में इतनी सफल क्यों है? साफ  है, भारत में जनसंख्या के नियंत्रण को लेकर चीन जैसी कठोर नीति कभी अपनाई ही नहीं गई। चीन में दशकों तक एक बच्चे का प्रावधान था, जबकि भारत में इसकी कोई चिंता नहीं की गई। इसके पीछे सरकारों की उदासीनता अव्वल रही है। लोकतंत्र में वोटों की राजनीति के चलते राजनेता जनता को भगवान करार देते रहे, पर वे किस आपदा में फंसेंगे, इससे वे अनभिज्ञ बने रहे। अब तो पानी सिर के ऊपर बह रहा है। मौजूदा मोदी सरकार तीन बरस की सत्ता हांकने के बाद भी जनसंख्या नियंत्रण को लेकर कोई ठोस पहल नहीं की। फिलहाल संयुक्त राष्ट्र की इस हालिया रिपोर्ट से यह भी स्पष्ट हुआ है कि जनसंख्या नियंत्रण के मामले में भारत न केवल फिसड्डी है, बल्कि कई समस्याओं का जन्मदाता भी है। 






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