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एमटीपी एक्ट में संशोधन में हो रही देरी
एमटीपी एक्ट में संशोधन में हो रही देरी
जेपी सिंह    07 Jul 2017       Email   

गर्भपात के लिए अधिकतम वक्त से जुड़े मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी यानी एमटीपी एक्ट में संशोधन में हो रही देरी की वजह से बहुत सारी महिलाओं को उच्चतम न्यायालय का रुख करना पड़ रहा है। ये महिलाएं 20 हफ्ते के कानूनी दायरे के बाहर गर्भपात कराने के लिए कोर्ट की मंजूरी लेने के लिए पहुंच रही हैं। इसी तरह के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक महिला के 25 हफ्ते के गर्भ को गिराने की इजाजत दे दी है। महिला पश्चिम बंगाल की रहने वाली है और उसके गर्भ में पल रहा भ्रूण दिल की गंभीर बीमारी से ग्रस्त है। इसी बीमारी को आधार बनाकर महिला के पति ने अदालत का दरवाजा खटखटाया था, जहां से उन्हें राहत मिल गई है। गौरतलब है कि गर्भ का चिकित्सीय समापन कानून की धारा 3(2)(बी) के तहत 20 सप्ताह के बाद भ्रूण का गर्भपात करने पर प्रतिबंध है।
उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला देने से पहले सात डॉक्टरों का एक पैनल गठित कर जांच रिपोर्ट पेश करने के लिए कहा था। रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर महिला ने गर्भ जारी रखा तो उन्हें गंभीर मानसिक बीमारियां हो सकती हैं। बच्चा अगर पैदा होता है तो कई बार उसका ऑपरेशन करना पड़ सकता है। लिहाजा, भ्रूण का गर्भपात किया जाना सबसे बेहतर विकल्प है। न्यायालय ने 23 जून को एसएसकेएम अस्पताल के सात चिकित्सकों का मेडिकल बोर्ड गठित करके महिला और उसके 24 सप्ताह के गर्भ के स्वास्थ के विभिन्न पहलुओं का पता लगाकर रिपोर्ट देने का निर्देश दिया था। इस दंपति ने अपनी याचिका के साथ एक मेडिकल रिपोर्ट भी संलग्न की थी, जिसमें यह सुझाव दिया गया था कि भ्रूण में गंभीर विसंगतियां हैं और यदि इसे जन्म लेने की अनुमति दी गई तो यह बच्चे और मां दोनों के लिए ही घातक हो सकता है। कोलकाता की इस गर्भवती महिला ने एमटीपी एक्ट 1971 के सेक्शन-3 की वैधता को कोर्ट में चुनौती दी है। इस कानून के तहत 20 हफ्ते से ज्यादा वक्त होने के बाद गर्भपात कराना कानूनन अवैध है। बीते पांच सालों में उच्चतम न्यायालय के सामने ऐसे कई मिलते-जुलते मामले आए हैं, जिनमें याचिकाकर्ताओं ने कानूनी डेडलाइन से बाहर गर्भपात की इजाजत मांगी। विषमताओं वाले 20 हफ्ते से ज्यादा प्रेग्नेंसी के अधिकतर मामलों में कोर्ट ने गर्भपात की इजाजत भी दी है। इसके पहले उच्चतम न्यायालय ने गर्भपात कानून के प्रावधानों को चुनौती देने वाली एक कथित बलात्कार पीड़िता की याचिका पर केंद्र व महाराष्ट्र सरकार रिपोर्ट मांगी थी। याचिका में कानून के उन प्रावधानों को चुनौती दी गई थी, जो गर्भधारण के 20 सप्ताह बाद गर्भपात कराने पर रोक लगाते हैं, भले ही मां और उसके भू्रण को जीवन का खतरा ही क्यों न हो।
याचिका में कहा गया था कि एमटीपी अधिनियम के अनुच्छेद पांच में गर्भवती महिला के जीवन की रक्षा की बात की गई है, इसमें गर्भवती महिला के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा करने की बात और उन स्थितियों को भी शामिल किया जाना चाहिए, जिनमें गर्भधारण के 20वें सप्ताह के बाद भ्रूण में गंभीर विकारों का पता चलता है। याचिका में 20 सप्ताह की सीमा तय करने वाली चिकित्सकीय गर्भपात कानून, 1971 की धारा 3(2)(बी) को निष्प्रभावी किए जाने की मांग की थी, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14 व 21 का उल्लंघन है।
गौरतलब है कि वर्ष 2014 का एक बिल संसद में लंबित है, जिसमें गर्भपात कराने के अधिकतम कानूनी वक्त का दायरा बढ़ाकर 24 हफ्ते करने की सिफारिश की गई है। मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिगनेंसी कानून में लंबे समय से जिन संशोधनों की मांग की जा रही है, उन्हें करने का वक्त अब आ गया है। हाल के दिनों में उच्चतम न्यायालय में कई ऐसे मामले पहुंचे हैं, जिनमें 20 हफ्ते से अधिक के गर्भ का गर्भपात करने की अनुमति मांगी गई। इससे साफ है कि वैध तरीके से गर्भपात करने से संबंधित 1971 के कानून में संशोधन की कितनी जरूरत है। ये मामले उच्चतम न्यायालय तक इसलिए पहुंच रहे हैं, क्योंकि 20 हफ्ते से अधिक का गर्भ होने पर गर्भपात की अनुमति सिर्फ तब है, जब मां की जान को खतरा हो। भ्रूण में अगर कोई दिक्कत हो या उसे किसी गंभीर बीमारी का खतरा हो तब भी कानून इसे मां के लिए खतरा नहीं मानता। कई बार ऐसा होता है कि पेट में पल रहे भ्रूण में गंभीर दिक्कत का अंदाज 20 हफ्ते के बाद ही लगता है। इस स्थिति में गर्भपात के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं और अदालत को डॉक्टरों की सलाह पर केस के आधार पर निर्णय देना होता है। इस कानून में प्रस्तावित संशोधन 2014 से ही अधर में लटका हुआ है। संशोधन करके यह प्रावधान किया जाना है कि गर्भपात कभी भी किया जा सकता है, बशर्ते पैदा होने वाले बच्चे को कोई गंभीर दिक्कत होने की आशंका हो या मां की जान को खतरा हो। गंभीर दिक्कतों की एक सूची बनाने का प्रस्ताव भी है। अगर ये संशोधन पारित हो जाते हैं तो इस मामले में अदालत का दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं रहेगी। क्योंकि तब गर्भपात किसी पंजीकृत स्वास्थ्यकर्मी की सलाह पर किया जा सकेगा। प्रस्तावित संशोधन में पंजीकृत स्वास्थ्यकर्मी के दायरे में आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथिक के डॉक्टरों और नर्स व अन्य ऐसी स्वास्थ्यकर्मियों को भी शामिल किया गया है। एलोपैथ के डॉक्टर इस प्रस्ताव का यह कहकर विरोध कर रहे हैं कि ऐसा करने से कई तरह की मेडिकल गड़बड़ियां हो सकती हैं। अगर ये प्रस्ताव पारित हो जाते हैं तो इससे गर्भपात और इससे संबंधित देखरेख की सुविधाओं तक लोगों की पहुंच बढ़ जाएगी। लेकिन ये सुधार हवा में नहीं होने चाहिए। औसतन हर रोज 10 महिलाएं भारत में असुरक्षित गर्भपात की वजह से जान गंवाती हैं। अनुमान है कि भारत में दो-तिहाई गर्भपात असुरक्षित तरीके से बगैर नियंत्रण वाले अनधिकृत अस्पतालों में होते हैं। इसकी कई वजहें हैं। कहीं लोगों की पहुंच इसकी वजह है तो कहीं अधिकृत डॉक्टरों द्वारा सेवा देने से इनकार। इसके अलावा इसकी सामाजिक वजहें भी हैं। साथ ही जागरूकता का अभाव भी एक बड़ी वजह है। इन दिक्कतों की वजह से महिलाएं असुरक्षित गर्भपात का विकल्प चुनने को मजबूर हैं। गर्भपात में इस्तेमाल की जाने वाली दवाएं जैसे मिफेप्रिस्टोन और मिसोप्रोस्टोल का इस्तेमाल बगैर किसी डाक्टरी सलाह के कर लेती हैं। 
भारत उन गिने-चुने देशों में है, जहां 46 साल पहले गर्भपात को कानूनी वैधता मिलने के बावजूद सुरक्षित गर्भपात की सुविधाओं तक लोगों की पहुंच नहीं हो पाई है। अगर इससे संबंधित कानून में संशोधन करके इसका विस्तार किया जाता है तो ऐसे प्रावधान भी किए जाने चाहिए, जिससे सुरक्षित गर्भपात सुविधाओं तक लोगों की पहुंच स्थापित हो सके। 1971 में यह कानून जनसंख्या नियंत्रण और असुरक्षित गर्भपात की वजह से जान गंवा रही महिलाओं की बड़ी संख्या को देखते हुए लागू किया गया था। प्रस्तावित संशोधनों से उस वक्त उपेक्षित बिंदुओं जैसे महिलाओं की आजादी और निर्णय लेने के अधिकार की रक्षा की कोशिश की जा रही है।
संशोधनों के बाद 12 हफ्ते तक गर्भपात अपनी इच्छा के अनुसार कराया जा सकता है। गर्भवती महिला की समस्या और भ्रूण की समस्याओं को देखते हुए गर्भपात की जो 20 हफ्ते की सीमा थी, उसे बढ़ाकर 24 हफ्ते किया जाना है। एक और स्वागत योग्य बदलाव यह प्रस्तावित है कि अब गर्भनिरोधक के काम नहीं करने के आधार पर गर्भपात कराने के लिए वैवाहिक स्थिति की जानकारी देना अनिवार्य नहीं होगा। 1971 के बाद से अब तक सामाजिक और मेडिकल क्षेत्र में काफी बदलाव हुए हैं। इसलिए उस वक्त का कानून भी जड़ नहीं बना रह सकता। गर्भपात की सुविधा और गर्भनिरोधकों तक पहुंच जनस्वास्थ्य से जुड़े मसले हैं और इनका समाधान उसी स्तर पर होना चाहिए। महिलाओं को अपने अधिकारों के मामले में स्वतंत्र मानकर उन्हें अपने शरीर, सेक्सुअलिटी और प्रजनन आदि के बारे में निर्णय लेने का अधिकार भी होना जरूरी है ।
वैसे तो मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी 1971 में ही भारत में लागू हो चुका है। फिर भी भारत में गर्भपात कराने के पहले कई सारे प्रशासनिक और डॉक्टरी गतिविधियों से गुजरना पड़ता है। ताकि सुरक्षित गर्भपात हो सके और इसका गलत इस्तेमाल भी न हो। देश में 20 सप्ताह तक के गर्भ का अबार्शन कराने की अनुमति है। गर्भपात कराने के पीछे अगर वजह सही है, तब यह संभव है। अगर प्रेगनेंसी 12 सप्ताह की है तो एक ही डाक्टर गर्भपात का निर्णय ले सकता है।
अगर ये 12 सप्ताह से ज्यादा की है, मगर 20 सप्ताह से कम है तो दो डॉक्टर्स की टीम मिलकर निर्णय लेती है। अगर गर्भ के रहने से होने वाली मां को मानसिक और शरीरिक तकलीफ होने का खतरा है या जान का जोखिम है तो गर्भपात किया जा सकता है। इसके अलावा अगर जन्म के बाद बच्चे के मानसिक और शरीरिक तौर पर विकलांग होने की आशंका है। तब भी गर्भपात किया जाता है। आकस्मिक स्थिति जिसमें होने वाली मां की जान को खतरा हो, ऐसे में डॉक्टर के टीम की जरूरत नहीं होती है। ऐसी स्थिति में मौजूद डाक्टर निर्णय लेकर गर्भपात कर सकता है। जब किसी महिला को स्वास्थ्य संबंधी कोई समस्या हो जैसे दिल की बीमारी, किडनी फेल, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, सर्वाइकल या ब्रेस्ट कैंसर, मिरगी, मानसिक रोग आदि। जिससे भी महिला के स्वास्थ्य और जीवन का नुकसान हो सकता है। शारीरिक, अनुवांशिक, क्रोमोसोमल अनियमितता अगर बच्चे में है। जिससे बच्चे के शारीरिक या मानसिक तौर पर विकलांग होने की आशंका है। अगर गर्भवती महिला को कहीं से ऐसी दवा मिल गई हो, जिससे जन्मगत अनियमितता या रेडिएशन से बच्चे को जन्मजात बीमारी का खतरा हो सकता है। ऐसा संक्रमण जो मां को हो और उसके अनुवांशिक तौर पर बच्चे को होने का खतरा होने पर भी गर्भपात कराया जाता है।






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