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घाटी का लोकतंत्र घाटे में क्यों!
घाटी का लोकतंत्र घाटे में क्यों!
सुशील कुमार सिंह    18 Apr 2017       Email   


लोकतंत्र महज मतों का आंकड़ा नहीं, बल्कि प्रवाहशील भारतीयों की वैचारिक धारा भी है। दो दशक पहले जब गठबंधन के बगैर सत्ता मिलती ही नहीं थी, तब इस बात की चर्चा आम थी कि हमारा लोकतंत्र किधर जा रहा है? ध्यान पड़ता है कि उन दिनों सिविल सेवा परीक्षा के निबंध प्रश्न पत्र में भी इस विषय को बड़ी शिद्दत से पूछा जाता था। उक्त का संदर्भ यहां तब लाजमी हो गया, जब घाटी में लोकतंत्र अनुमान से कहीं अधिक नीचे चला गया। हालांकि यह एक लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव से जुड़ा मामला है, पर यह इतना सीधा भी नहीं है। जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के लोकसभा उपचुनाव के हालिया नतीजे को देखते हुए इस एहसास से भर जाना गैर-वाजिब नहीं है कि लोकतंत्र का आशा दीप इन दिनों घाटी में मानो बुझ गया हो। सख्त लहजे में कहा जाए, साथ ही परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण के निहित भाव को देखा जाए तो लोकतंत्र का बंटाधार करने वालों में हमारे देश के राजनेता ही अव्वल नजर आएंगे। जम्मू-कश्मीर में बरसों बरस सत्ता चलाने वाले फारूख अब्दुल्ला महज 48 हजार से कुछ अधिक वोट पाकर श्रीनगर सीट जीतकर लोकसभा में एंट्री पा ली है। इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र की इस गिरावट से जो प्रश्न उठ रहे हैं, वह कई लोगों के माथे पर बल जरूर डालेंगे और मन यह मथता रहेगा कि आखिर घाटी इस कदर वोट विहीन क्यों हुई? सवाल तो यह भी उठेगा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतंत्र की ही सबसे बड़ी हार घाटी में कैसे हो गई? सभी जानते हैं कि चुनाव कितने भी लड़ें, जिसके पक्ष में मतदान अधिक विजय उसी की होगी। यह लोकतंत्र का मजाक ही है कि जहां हम आमतौर पर 65 से 70 फीसदी तक मतदान होते देख रहे हों और कहीं-कहीं यह आंकड़ा 80 से अधिक हो, उसी देश में देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचने के लिए महज कुल वोट का 4 फीसदी मत प्राप्त करने वाला संसद जाए, हैरत भरी बात है। फिर भी यदि हम गर्व से कहते हैं कि हमारा लोकतंत्र सशक्त है तो यह हमारी जनता के प्रति उपजी सद्भावना ही कही जाएगी, पर साढ़े बारह लाख से अधिक मतदाताओं में महज नब्बे हजार मतदान केंद्र तक पहुंचे तो इसे विडंबना ही कहा जाएगा। फिलहाल फारूख अब्दुल्ला घाटी से संसद की दूरी तय कर चुके हैं, पर किस कीमत पर यह सवाल कचोटता रहेगा। 
इस सच्चाई से फारूख अब्दुल्ला भी अनभिज्ञ नहीं हंै कि घाटी में लोकतंत्र हादसे का शिकार हुआ है। जीत के बाद उन्होंने मांग की कि जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन लगाया जाए। इसके पीछे का आरोप यह है कि राज्य सरकार शांतिपूर्ण चुनाव कराने में विफल रही है। हालांकि बारीक पड़ताल की जाए तो पता चलेगा कि फारूख अब्दुल्ला यहां भी जमकर राजनीति कर रहे हैं और इन दिनों शायद ही उन्हें घाटी में फैली अशांति को लेकर बड़ी चिंता है, क्योंकि शांति स्थापित करने की जिम्मेदारी तो पीडीएफ-भाजपा गठबंधन की सरकार चला रही महबूबा मुफ्ती को होनी चाहिए, जिससे फिलहाल उनका छत्तीस का आंकड़ा है। ध्यान्तव्य है कि ये वही फारूख अब्दुल्ला हैं, जो घाटी में बीते कई महीनों से पत्थरबाजी में संलिप्त कश्मीरी युवाओं को वतनपरस्त बता चुके हैं। यहां यह स्पष्ट कर दें कि पत्थरबाज कश्मीरी बेरोजगार युवा हैं या अलगाववादी कह पाना मुश्किल है, पर यह कहना सहज है कि पत्थरबाज वतनपरस्त तो नहीं हो सकते। हाल ही में चुनाव कराने वाले सीआरपीएफ  के जवानों पर इन्हीं अलगाववादियों ने न केवल लात-घूंसे बरसाए, बल्कि उन्हें जलील करने की हर मुनासिब कोशिश की, जिसका वीडियो बीते दिनों वायरल हुआ था। हालांकि जवानों द्वारा इन्हें सबक सिखाए जाने वाला वीडियो भी वायरल हो चुका है। फिलहाल इस सच का सभी समर्थन करेंगे कि घाटी में अशांति का माहौल बीते कुछ वर्षों से तो व्याप्त है। गौरतलब है कि पहली बार जम्मू-कश्मीर के विधानसभा में कुल 87 सीटों के मुकाबले 25 स्थानों पर भाजपा काबिज हुई, जो महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार चला रही है, परंतु इस आरोप से पूरी तरह मुक्त नहीं है कि भाजपा ने सत्ता की चाहत में बेमेल समझौते किए हैं और अलगाववादियों के साथ गठजोड़ किया है। दो टूक सच्चाई यह भी है कि जब मुख्यमंत्री की कुर्सी महबूबा मुफ्ती से पहले मुफ्ती मोहम्मद सईद ने संभाली थी, तब कई अलगाववादियों को उन्होंने कुर्सी संभालते ही जेल से रिहा कराया था। तब भी यह चर्चा जोरों पर थी कि केंद्र में मोदी सरकार होने के बावजूद सईद की मनमानी पर रोक नहीं लगा पाए थे। कमोबेश आज भी अलगाववादियों पर नियंत्रण कर पाना टेढ़ी खीर बना हुआ है।
भारतीय संविधान में इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं है कि लोकसभा या विधानसभा में सदस्य बनने के लिए कम से कम कितना वोट पाना चाहिए। शायद संविधानविदों ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में जब देश आजादी के सात दशक पूरे कर लेगा, तब भी लोकतंत्र को हाशिए पर फेंके जाने वाली घटना होगी। जिस तर्ज पर देश में लोकतंत्र परवान चढ़ा है, उसके मुकाबले फारूख अब्दुल्ला की जीत और घाटी का रसातल में पहुंचा लोकतंत्र शायद ही किसी को पचे। ठंडी वादी में राजनीति इतनी गरम होगी, इसका भी एहसास किसी को नहीं रहा होगा। गौरतलब है कि महज कुछ वोट पाने वाले फारूख अब्दुल्ला 2014 के लोकसभा चुनाव में चुनाव हार गए थे। तब पीडीएफ  नेता तारिक हमीद कर्रा ने जीत हासिल की थी, परंतु पिछले साल हिजबुल मुजाहिद्दीन के सदस्य बुरहान वानी के मार जाने के बाद पीडीएफ-बीजेपी गठबंधन की नीतियों से नाराज होकर तारिक कर्रा ने इस्तीफा दे दिया था। जिसके चलते खाली सीट को भरना था, ऐसे में जाहिर है छह महीने के अंदर चुनाव कराना जरूरी था। फिलहाल बाजी फारूख अब्दुल्ला के हाथ लगी और घाटी का लोकतंत्र हार गया। इसका जिम्मेदार कौन है, शायद ही खुले मन से कोई स्वीकारे।
सभी जानते हैं कि कश्मीर बरसों से सुलग रहा है। भारी हिंसा और अशांति का माहौल यहां की वादियों में व्याप्त है। आलम यह है कि उपचुनाव के दौरान भी पोलिंग स्टेशन और मतदान कर्मचारियों पर भीड़ द्वारा हमला किया गया। सुरक्षाकर्मियों द्वारा गोली भी चलाई गई, दर्जनों मारे भी गए, पर क्या मिला, देखा जाए तो एक बीमार लोकतंत्र। गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर उन 9 राज्यों में से एक है, जहां बीते 9 अप्रैल को विधानसभा और लोकसभा का उपचुनाव हुआ था। सवाल यह भी है कि जिस प्रकार घाटी में हिंसा पैर पसार लेती है, जिस प्रकार भारत विरोधी नारे और आतंक की आड़ में पाकिस्तानपरस्त लोगों की बाढ़ आ जाती है, क्या उसे देखते हुए इस बात पर एकजुटता नहीं हो सकती कि कश्मीर के हितों के लिए सभी को अपनी-अपनी कोशिश करनी चाहिए। जिस तरह अलगाववादी बैंक लूटने, एटीएम लूटने तत्पश्चात पत्थरबाजी का कारोबार बदस्तूर चलाए हुए हैं, इससे यह भी संकेत मिलता है कि कुछ हद तक राजनीतिक नरमी भी इनके मनोबल को ऊंचा किए हुए है। हुर्रियत जैसे अलगाववादी दलों के लोगों ने कश्मीरी युवाओं का दिमाग खराब कर रखा है। परंतु फारूख अब्दुल्ला जैसों के अनाप-शनाप बयान भी उनका मनोबल बढ़ाने के काम आ रहे हैं। पीडीएफ  की दौड़ रही सरकार भी अलगाववादियों के लिए भी कुछ हद तक आका का काम कर रही है। शायद मोदी ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने तीन बरस के भीतर जम्मू-कश्मीर की सर्वाधिक यात्रा की है, पर हालात काबू में नहीं हैं और अब तो लोकतंत्र की सांस भी यहां उखड़ गई है। ऐसे में श्रीनगर में हुआ उपचुनाव से क्या सबक भविष्य में लिया जाएगा, इस पर भी देश के राजनेताओं को होमवर्क करना चाहिए।






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