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क्यों खास है मोदी की इजरायल यात्रा
क्यों खास है मोदी की इजरायल यात्रा
आरके सिन्हा    04 Jul 2017       Email   

निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आगामी 4 जुलाई से शुरू हो रही यहूदी देश इजरायल की यात्रा एतिहासिक है। इस यात्रा का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है, क्योंकि यह यात्रा तब हो रही है, जबकि दोनों देश अपने राजनयिक संबंधों की रजत जयंती मना रहे हैं। मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री होंगे, जो वर्ष में पहली बार यहूदी राष्ट्र इजरायल जाएंगे। हालांकि वे गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में पहले भी एकबार इजरायल का दौरा कर चुके हैं। भारत ने साल 1992 में इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थपित किए थे, मगर किसी भारतीय प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ने कभी वहां का दौरा नहीं किया। साल 2003 में तत्कालीन इजरायली प्रधानमंत्री एरियल शेरोन भारत की यात्रा पर आए थे। ऐसा करने वाले वह पहले इजरायली प्रधानमंत्री थे। भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों को रक्षा और व्यापार सहयोग से लेकर रणनीतिक संबंधों तक विस्तार देने का श्रेय काफी हद तक उनको ही जाता है।
दरअसल, दोनों देशों की सत्तासीन पार्टियां, यहां की भारतीय जनता पार्टी और वहां की लिकुड में राष्ट्रवाद के सवाल पर एक ही राय है। यानी विचारधारा के स्तर पर अनेक समानताएं हैं दोनों देशों में। इसके कारण ही अब दोनों देशों के आपसी संबंधों को विस्तार मिलना तय है। हालांकि, भारत ने जवाहर लाल नेहरू की मुस्लिम परस्ती के कारण 1949 में संयुक्त राष्ट्र में इजरायल को शामिल करने के खिलाफ  वोट दिया। लेकिन, फिर भी इजरायल को शामिल कर लिया गया था। अगले साल ही भारत को इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार करना पड़ा था। यही भारत और इजरायल के संबंधों का श्रीगणेश था। भारत ने 15 सितंबर, 1950 को इजरायल को मान्यता दे दी। अगले साल बंबई यानी अब मुंबई में इजरायल ने अपना वाणिज्य दूतावास खोला। पर भारत अपना वाणिज्य दूतावास इजरायल में नहीं खोल सका। भारत और इजरायल को एक दूसरे के यहां आधिकारिक तौर पर दूतावास खोलने में चार दशकों से भी लंबा वक्त लग गया। मतलब नई दिल्ली और तेल अबीब में इजरायल और भारत के दूतावास सन् 1992 में खुले। नई दिल्ली में इजरायल का दूतावास शुरू में बाराखंभा रोड पर स्थित गोपालदास भवन में खुला था।   
निर्विवाद रूप से इजरायल भारत के सच्चे मित्र के रूप में लगातार सामने आ रहा है। हालांकि, फिलस्तीन मसले पर भारत अरब देशों के साथ विगत दशकों में खड़ा रहा, पर बदले में भारत को खाड़ी के देशों से अपेक्षित सहयोग और समर्थन नहीं मिला। भारत अरब देशों की वकालत करता रहा, पर कश्मीर के सवाल पर अरब देशों ने सदैव पाकिस्तान का ही साथ दिया। यह ठीक है कि मोदी के खाड़ी देशों की यात्रा के बाद अब वहां पर भी बदली हुई बयार बह रही है। और तो और सऊदी अरब भी पर्दे के पीछे से इजरायल से रिश्तों को स्थापित कर रहा है। यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है, जब भारत खुलकर इजरायल के साथ संबंधों को नई दिशा देने से बचता था। केंद्र में कांग्रेस सरकारों के दौर में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण नीति के तहत भारत के कूटनीतिक हितों की बलि दी जाती रही। माना जाता रहा कि इजरायल से संबंध रखने से देश के मुसलमान खफा हो जाएंगे। इस कूटनीतिक विफलता के लिए कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियां ही उत्तरदायी हैं। दुर्भाग्यवश हमारे यहां सत्ता उनके हाथों में लंबे समय तक रही, जिन्हें ये भी लगता था कि इजरायल से संबंध प्रगाढ़ करने से उन प्रवासी भारतीयों के हित प्रभावित होंगे, जो खाड़ी के देशों में रहते हैं। इसके अलावा कच्चे तेल के आयात का भी सवाल था। पर देश के हितों की तो घोर अवहेलना हुई। हम उन अरब देशों के साथ खड़े ही रहे, जो हमारे शत्रु पाकिस्तान को सदैव खाद-पानी देते रहे।
जब मुसलमानों के तुष्टिकरण के लिए देश के हितों की अनदेखी हो रही थी, तब किसी भी पूर्ववर्ती सरकार ने भारत के यहूदियों के बारे में कभी नहीं सोचा। भारत में हजारों यहूदी सदियों से रहते हैं। भारत में आज के दिन भी करीब 6 हजार यहूदी हैं। ये केरल, महाराष्ट्र और देश के अन्य भागों में हैं। भारत-पाकिस्तान 1971 के युद्ध में जंग के महानायक लेफ्टिनेंट जनरल जेएफआर जैकब थे। वो यहूदी थे। पूर्वी पाकिस्तान यानी अब बांग्लादेश में अंदर घुसकर पाकिस्तानी फौजों पर भयानक आक्रमण करवाने वाले इस्टर्न कमांड के चीफ  ऑफ  स्टाफ  जनरल जैकब की वीरता की गाथा रोमांचक है। उनका आक्रमण युद्ध कौशल का ही परिणाम था कि नब्बे हजार से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों ने अपने हथियारों समेत भारत की सेना के समक्ष आत्मसमर्पण किया था, जोकि अभी तक का विश्वभर का सबसे बड़ा सैन्य आत्मसमर्पण है। मेरा सवाल यह है कि अगर हमने मुसलमानों के लिए इजरायल से दूरियां बनाईं तो हमने अपने यहूदी देशवासियों की राष्ट्रभक्ति की भावनाओं का आदर करते हुए इजरायल से मैत्रीपूण संबंध किसलिए नहीं स्थापित किए। क्या यह कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति का ज्वलंत उदाहरण नहीं है। 
अब दोनों देश एक दूसरे के करीब आ रहे हैं। सभी क्षेत्रों में आपसी सहयोग बढ़ा रहे हैं। इजरायली वित्तमंत्री मोशे यालून ने अपनी भारत यात्रा के दौरान माना था कि उनके देश के सैन्य उद्योग के लिहाज से भारत महत्वपूर्ण है। उन्होंने भारत के साथ तकनीकी दक्षता और विशेषज्ञता को साझा करने की इच्छा भी जताई थी। और नई सरकार के आने के बाद से कई द्विपक्षीय समझौते हुए हैं, जिसमें कृषि, शोध व विकास, अर्थव्यवस्था, उद्योग और सुरक्षा में सहयोग शामिल हैं। कृषि क्षेत्र में आपसी सहयोग द्विपक्षीय संबंधों का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। इजरायल में पानी की भारी कमी है, फिर भी वहां ड्रिप सिंचाई पद्धति के विशेषज्ञ भरे पड़े हैं। अद्भुत प्रयोग किया है इजरायलियों ने। बागवानी, खेती, बागान प्रबंधन, नर्सरी प्रबंधन, सूक्ष्म सिंचाई और सिंचाई के बाद कृषि प्रबंधन क्षेत्र में इजरायल प्रौद्योगिकी से भारत को काफी लाभ मिल रहा है। इसका हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात में काफी उपयोग किया गया है। विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र की कृषि समस्या दूर करने के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कुछ समय पहले ही इजरायल की यात्रा की थी। दूसरी ओर देखें तो भारत इजरायल को मुख्यतः खनिज ईंधन, तेल, मोती और रत्नों का निर्यात करता है।
इजरायल तब भारत के साथ खड़ा था, जब उसे मदद की सर्वाधिक दरकार थी। यानी युद्धों के कठिन दौर में इजरायल ने हमारा साथ दिया। इजरायल ने 1965 और 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ  लड़ाइयों के दौरान भी भारत को मदद दी। 1965 और 1971 में इजरायल ने भारत को गुप्त जानकारियां देकर मदद की थी। कहा तो यह भी जाता है कि तब भारतीय सुरक्षा या खुफिया अधिकारी साइप्रस या तुर्की के रास्ते इजरायल जाते थे। वहां उनके पासपोर्ट पर मुहर तक नहीं लगती थी। उन्हें मात्र एक कागज का दुकड़ा दिया जाता था, जो उनके इजरायल आने का सुबूत होता था। 1999 के करगिल युद्ध में इजरायल मदद के बाद भारत और इजरायल खासतौर पर करीब आए। तब इजरायल ने भारत को एरियल ड्रोन, लेसर गाइडेड बम, गोला बारूद और अन्य हथियारों की मदद दी। पाकिस्तान के परमाणु बम, जिसे इस्लामी बम भी कहा जाता है, ने भी दोनों देशों को नजदीक आने में मदद की। इसके साथ ही इजरायल को डर रहा है कि कहीं यह परमाणु बम ईरान या किसी इस्लामी चरमपंथी संगठन के हाथ न लग जाए। आप कह सकते हैं कि हमेशा से ही भारत और इजरायल के बीच सैन्य संबंध सबसे अहम रहे हैं। इजरायल ने करगिल युद्ध के दौरान इस्तेमाल किए गए लेजर गाइडेड बम और मानवरहित हवाई वाहन भी हमें दिए थे। संकट के समय भारत के अनुरोध पर इजरायल की त्वरित प्रतिक्रिया ने उसे भारत के लिए भरोसेमंद हथियार आपूर्ति करने वाले देश के तौर पर स्थापित किया और इससे दोनों देशों के रिश्ते काफी मजबूत हुए हैं।
बेशक, भारत-इजरायल संबंधों परिप्रेक्ष्य में चालू साल अपने आप में विशेष महत्व रखता है। इसी बदले माहौल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इजरायल की यात्रा पर जाने वाले हैं। निश्चित रूप से उनकी इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और बाकी नेताओं से बातचीत से दोनों देशों के संबंधों को नई गति और ऊर्जा मिलेगी।
(लेखक राज्यसभा सांसद व हिंदुस्थान समाचार के अध्यक्ष हैं)






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