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जी-20 सम्मेलन में सुलगते रहे सवाल
जी-20 सम्मेलन में सुलगते रहे सवाल
सुशील कुमार सिंह    11 Jul 2017       Email   

जब भी भारत की विश्व के साथ आर्थिक संबंधों की विवेचना होती है तो जी-20 जैसे सम्मेलनों की प्रासंगिकता और उभर जाती है। दो टूक यह है कि जी-20 ने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संरचना को सशक्त और आर्थिक विकास को धारणीय बनाने में मदद पहुंचाई है। मंदी के दौर से गुजर रही अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी कमोबेश ऊर्जा देने का काफी हद तक इस संगठन ने काम किया है। यह एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय मंच है, जहां दुनिया के मजबूत देश इकट्ठा होते हैं, साथ ही न केवल हित साधने का निर्वहन करते हैं, बल्कि संसार के सुलगते सवालों की परख भी करते हैं, पर क्या ऐसे सवालों को वाजिब जवाब मिल पाया है। जर्मनी के हैम्बर्ग में बीते दिन संपन्न हुए जी-20 सम्मेलन में शामिल 19 देशों के नेताओं ने एक बार फिर जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर करके इसकी गरिमा को उच्चस्थता दे दी है। गौरतलब है कि अमेरिका इस समझौते से अपने को बीते माह अलग-थलग कर लिया था। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका को पेरिस जलवायु समझौते से बाहर करने के फैसले को अन्य देशों की प्रतिबद्धता कम किए बिना मंजूरी दे दी गई, जो अपने आप में बड़ी बात है, क्योंकि यह डर था कि अमेरिका के हटने से अन्य देशों पर इसका असर पड़ सकता है। फिलहाल बीते 8 जुलाई को जी-20 के 12वें शिखर सम्मेलन की समाप्ति तक पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को लेकर अमेरिका टस से मस नहीं हुआ, पर बिना किसी टकराव के और पेरिस करार में अमेरिका के लिए खुला दरवाजा रखना भी इस सम्मेलन की बड़ी कामयाबी है। बावजूद इसके एक सवाल यह भी फलक पर उतरा गया कि पृथ्वी बचाने की जिम्मेदारी से भागने वाले अमेरिका के पास आखिर क्या संकल्प और किस प्रकार का विकल्प है। इस सवाल का जवाब शायद अमेरिका के पास भी नहीं है। बड़ा सच यह है कि बीते 20 जनवरी से डोनाल्ड ट्रंप सार्वजनिक एजेंडे के बजाय अपने निजी एजेंडे पर काम कर रहे हैं। इस बात का पुख्ता सबूत यह है कि पेरिस समझौते से हटते समय उन्होंने कहा था कि मैं अमेरिका का नेतृत्व करता हूं, पेरिस का नहीं। सवाल तो यह भी है कि दुनिया के ताकतवर देश के कदम ही यदि पृथ्वी बचाने के मामले में पीछे रहेंगे तो दूसरों से उम्मीद करना कितना मुनासिब होगा। समझने वाली बात यह भी है कि जब इस समझौते से अमेरिका हट रहा था तो भारत व चीन समेत कुछ देशों को इसमें दी जाने वाली अतिरिक्त सुविधा पर एतराज जताया था। 
दुनिया ने यह भी देखा कि हैम्बर्ग में जी-20 सम्मेलन से पहले शहर ने हिंसक रूप ले लिया था और यह सम्मेलन के साथ जारी रहा। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पहले ही कह चुके हैं कि वे अमेरिका के कोयला उद्योग को वे पुनर्जीवित करेंगे। ऐसे में वे पेरिस समझौते को अमेरिका हितों की अनदेखी मान रहे हैं। जर्मनी ने ट्रंप की निंदा करते हुए कहा कि दुर्भाग्यवश अमेरिका पेरिस समझौते के खिलाफ  खड़ा है, परंतु हम सभी संतुष्ट हैं। गौरतलब है कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा नवंबर, 2016 में ही कह चुके हैं कि पेरिस समझौते से हटना अमेरिका के हित में नहीं होगा, पर ट्रंप ने उनके इस सुझाव की भी अनदेखी की है। जी-20 शिखर सम्मेलन में दुनिया के 19 विकसित और विकासशील देश व यूरोपीय संघ भी शामिल होता है, जहां संसार के कायाकल्प करने का संकल्प लिया जाता है, परंतु जिस प्रकार दुनिया उथल-पुथल से गुजर रही है और कूटनीतिक फलक पर अपने हिस्से का फायदा सभी खोज रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि यह सम्मेलन कारोबारियों का एक अड्डा मात्र बनकर रह गया है। कभी-कभी तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जो वायदे-इरादे जताए जाते हैं, उसे जमीन पर उतार पाने में ये बड़े देश नाकाम ही रहे हैं। आतंकवाद पर काबू न पा पाना इसकी पुख्ता नजीर है। गौरतलब है, प्रधानमंत्री मोदी पहली बार ब्रिसबेन ऑस्ट्रेलिया में हुए नवंबर, 2014 के सम्मेलन में शामिल हुए थे। जहां उन्होंने आतंकवाद और काले धन पर दुनिया का ध्यान आकर्षित किया था। इस मामले में काफी हद तक सफलता भी मिली थी। तब से अब तक जी-20 की चार बैठकें हो चुकी हंै, पर आतंकवाद को लेकर सवाल अभी भी सुलग रहा है। काले धन के मामले में रायशुमारी भी पुख्ता नहीं हो पाई है और एक नई समस्या पेरिस जलवायु समझौते की अलग से पैदा हुई है। स्पष्ट है कि देश कितना भी मजबूत हो, नफे और नुकासन के तराजू पर हमेशा वह अपना ही फायदा देखता है। 
दो दिवसीय संपन्न जी-20 शिखर सम्मेलन में भारतीय पक्ष को परखा जाए तो आतंकवाद को रोकने और वैश्विक व्यापार पर निवेश को बढ़ावा देने में भारत के संकल्प को महत्वपूर्ण माना जा सकता है। शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी का परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण चीन जैसे देशों को छोड़ दिया जाए तो सभी के लिए आकर्षित करने वाला रहा है। गौरतलब है कि इन दिनों भारत और चीन के बीच सिक्किम के डोकलाम में तनातनी का माहौल बना हुआ है। चीन के सरकारी कार्यालय ने यह भी सूचना थी कि राष्ट्रपति जिनपिंग जर्मनी में हो रहे जी-20 सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात नहीं करेंगे। हालांकि ऐसा नहीं हुआ, दोनों नेताओं के बीच द्विपक्षीय बातचीत इस सम्मेलन में हुई है, पर डोकलाम में जो सवाल चीन ने सुलगाया है, क्या जी-20 में हुई मुलाकात बौछार का काम करेगी। चीन की आदत को देखते हुए उम्मीद करना बेमानी है। देखा जाए तो जी-20 का सम्मेलन देशों के बीच सद्भावना भर पाने में उतना कारगर नहीं रहा है। हालांकि चीन के साथ छत्तीस का आंकड़ा प्रधानमंत्री मोदी की इजरायल यात्रा का परिणाम भी हो सकता है। जाहिर है, चीन या पाकिस्तान को भारत की वैश्विक कूटनीति तनिक मात्र भी नहीं भाती, साथ ही चीन भारत को उभरती अर्थव्यवस्था के तौर पर भी नहीं पचा पाता है। मुश्किल तब और बढ़ जाती है, जब अमेरिका जैसे देशों से गाढ़ी दोस्ती कर बैठता है। फिलहाल देखा जाए तो दुनिया में दो समस्याएं आपे के बाहर हो रही हैं, जिसके लिए प्रकृति नहीं, कहीं-न-कहीं मानव ही जिम्मेदार है। एक जलवायु परिवर्तन तो दूसरा आतंकवाद। सवाल है कि जी-20 के सम्मेलन में क्या इस पर चिंता पुख्ता हुई है। पेरिस संधि से अमेरिका का हटना ऐसे मुद्दों से बेफिक्री का पुख्ता सबूत है। प्रधानमंत्री मोदी इस प्रकार की समस्याओं का जिक्र पहले की विदेश यात्राओं व अंतरराष्ट्रीय मंच पर कर चुके हैं। दुनिया के तमाम देश इससे निपटने के इरादे भी जता चुके हैं, पर क्या इस पर काबू पाया जा चुका है। जाहिर है, यह आज भी दूर की कौड़ी बना हुआ है।
सकारात्मक परिप्रेक्ष्य में जी-20 को भी याद किया जा सकता है। रूस के साथ रचनात्मक कार्य करने का ट्रंप का इरादा एक अच्छा संदेश है। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए भारत समेत जी-20 के अन्य देशों के लिए एक मजबूत प्रस्ताव भ्रष्टाचार रोधी कार्य योजना 2017-18 को स्वीकार किया जाना इस सम्मेलन की खासियत रही है। भारत की तरफ  से सतत् व समावेशी विकास के लिए उठाए गए कदमों जैसे कारोबार सुगमता, स्टार्टअप फंडिंग और श्रम सुधारों के लिए जी-20 सम्मेलन में सराहना की गई। इसके अतिरिक्त कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी को भी महत्ता की नजरों से देखा गया। जिस तर्ज पर भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बीते तीन वर्षों से कूटनीतिक बढ़त ले रहा है, उससे साफ  है कि दुनिया के देशों द्वारा भारत को दरकिनार किया जाना फिलहाल अब संभव नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का मोदी से स्वयं मिलने की पहल भी यह स्पष्ट करती है कि ऐसे मंचों पर भारत साख के मामले में समानता की पंक्ति में खड़ा है। ये बात और है कि सीरिया और यूक्रेन जैसे मुद्दों को जी-20 में जगह मिलती रही और यूक्रेन ने तो अमेरिका और रूस के बीच दूरी बढ़ाने का काम किया। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के समक्ष इसकी जवाबदेही रही है, पर इस बार उन्होंने भी काफी सहज महसूस किया होगा। अमेरिका और चीन के बीच भी हाथ मिले हैं, जबकि दक्षिणी चीन सागर में भारत, जापान और अमेरिका के नौसैनिकों का मिलकर किए गए अभ्यास ने चीन के लिए किरकिरी का काम किया था। फिलहाल 12वां जी-20 नरम-गरम मामलों के साथ समाप्त हो गया, पर 2018 में अर्जेंटीना में 13वें सम्मेलन के रूप में फिर परिलक्षित होगा। जाहिर है, इसमें भी बदले हुए देशों की बदली हुई तस्वीर परिलक्षित होगी। 






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